Monday, April 6, 2015

रात का वो चाँद आज फिर मुझे कहने लगा,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है,
खुद ही अपनी उलझनें बनाकर,
रात में सोचता है, जागता है,
हूँ करोड़ों साल से मैं, जीवन कितने व्यर्थ हुए,
आज तू फिर से उसी पथ पे अग्रसर है?
आज तेरा स्वप्न टूटा, स्वप्न क्या है, बुलबुला,
आँख बंद कर के किसने विश्व जीता है?
तू आदमी, मनु-पुत्र है, तेरी कल्पना में भी धार है,
है स्वप्न क्या, एक बुलबुला, पानी में लहरें हज़ार हैं!
नाव टूटी ही सही, पर लहरों से तो लड़ती है,
तू तो फिर आदमी है, कदमो में तेरे धरती है,
जो बीत गया उसे भुला कर चल,
इस मधुशाला में एक और जाम लगा कर चल.

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